Tuesday, February 17, 2009
देव डी
रात के १ बजे मैं फ़िल्म review लिख रहा हूँ, ये इस बात का प्रमाण है की मैं अभी तक देव डी के नशे से बहार नही आ पाया हूँ,. देखिये साहब सीधी सीधी बात है. या तो आपको ये फ़िल्म बेहद पसंद आयेगी, या आपको ये एक इमोशनल अत्याचार के सिवा और कुछ न लगेगा. मैं पहली श्रेणी में अपने को पाता हूँ. लोग कह सकते हैं की ये एक व्यभिचारी फ़िल्म है और उन्हें इसमे सस्ते व्यंग्य की बू आ सकती है, या मेरी नज़रिए से देखें तो अपने को बर्बाद करने का जूनून सर चढ़ कर बोलता है. पागलपन है एक जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है. मुझे क्या पसंद आया? पता नही , सच में पता नही. अगर मैं आपसे पूछूँ की भई बिरयानी में चावल अच्छा था, या नमक अच्छा था, या कर्री अच्छी थी, तो आप क्या कहेंगे? पता नही न? ठीक वैसे ही मुझे नही पता की साला इस फ़िल्म में ऐसा क्या था जो मुझे किसी हथौडे की तरह 'hit' कर गया. शायद चंडीगढ़ में रहने की वजह से और दिल्ली के दरियागंज की सड़क का दृश्य या फिर कैमरे के विभिन्न कोण, या फिर संगीत, या कोकीन के शॉट्स, या सिगरेट का dhuaN ...उम्म्म पता नही. साला शाहरुख़ की देवदास देख में सोचता ही रह गया की B.C., किसी को इस फ़िल्म में ऐसा क्या लगा की ९ और बन गयीं इस उपन्यास के ऊपर. और देव डी को देख मैंने सोचा, अनुराग कश्यप, केवल तुम इस बर्बादी को समझ पाए हो. पागलपन है साहब, बस पागलपन.
मटमैले नैन
उसके मटमैले नैन ,
मेरे मर्म को
पिघला देते हैं..
और मैं,
मैं पानी बन जाता हूँ.
टप टप..
टप टप..
अपनी आंखों से बह जाता हूँ.
मेरे मर्म को
पिघला देते हैं..
और मैं,
मैं पानी बन जाता हूँ.
टप टप..
टप टप..
अपनी आंखों से बह जाता हूँ.
Monday, February 16, 2009
एहसास
कांक्रीट के जंगल में,
टूटी पत्ती का
मादक नृत्य देख,
हुआ मुझे भी एहसास.
जिंदा हूँ मैं,
चलती है मेरी भी साँस.
टूटी पत्ती का
मादक नृत्य देख,
हुआ मुझे भी एहसास.
जिंदा हूँ मैं,
चलती है मेरी भी साँस.
Sunday, February 15, 2009
हे मेरी तुम!
केदारनाथ अग्रवाल की कवितायेँ मुझपे जादू कर देती हैं। वे इतनी सुंदर होती हैं, की मन झंकृत हो उठता है। मसलन यह नमूना देखिये। कवि इसे अपनी octogenarian पत्नी के लिए लिखता है, और कितने कम शब्दों ( 27 शब्द मात्र!) में ही कितना कुछ कह जाता है॥
(http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=हे_मेरी_तुम_!.._/_केदारनाथ_अग्रवाल)
हे मेरी तुम !
बिना तुम्हारे--
जलता तो है
दीपक मेरा
लेकिन ऎसे
जैसे आँसू
की यमुना पर
छोटा-सा
खद्योत
टिमकता,
क्षण में जलता
क्षण में बुझता ।
( खद्योत = एक छोटी सी नाव जिसपे एक दीपक रखकर नदी में बहाया जाता है, हरिद्वार में प्रचलित)
(http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=हे_मेरी_तुम_!.._/_केदारनाथ_अग्रवाल)
हे मेरी तुम !
बिना तुम्हारे--
जलता तो है
दीपक मेरा
लेकिन ऎसे
जैसे आँसू
की यमुना पर
छोटा-सा
खद्योत
टिमकता,
क्षण में जलता
क्षण में बुझता ।
( खद्योत = एक छोटी सी नाव जिसपे एक दीपक रखकर नदी में बहाया जाता है, हरिद्वार में प्रचलित)
love is in the air
आज biscuits खरीदने के लिए अँधेरी गया। रास्ते में जिन लोगों को मैं नज़रंदाज़ करता हुआ चला जाता हूँ, आज उनकी बातें सुनने की इच्छा हुई। सभी किस्म के लोग थे। कुछ जवान, कुछ बच्चे , कुछ 30-40 साल के, कुछ बूढे। और आज सभी 14 फ़रवरी के बारे में ही बात करते हुए दिखे... कसम से!
कौन कहता है की १४ फ़रवरी से फर्क नही पड़ता आम आदमी को?
कौन कहता है की १४ फ़रवरी से फर्क नही पड़ता आम आदमी को?
Thursday, February 12, 2009
आजकल ब्लॉग लिखे में स्वतंत्रता नही है। कुछ लोग टिपण्णी लिखते हैं मेरे पोस्ट पे। ये मुझे अच्छा लगता है, धन्यवाद! लेकिन उसके साथ ही साथ अब मुझे लगने लगा है की कुछ ऐसा लिखूं जिसपे कुछ न कुछ टिपृपणी ज़रूर आए। तो मूलभूत रूप से अब में अपने नही, अपितु दूसरों के लिए लिखने की कोशिश करता हुआ स्वयं को पाता हूँ। यह सही नही है।
यह अजीब बात है की मैंने ज्यादा लोगों को अपने ब्लॉग के बारे में नही बताया है, मेरे ख़याल से १-२ को छोड़ के सबने अपने आप ही इसे मेरी ऑरकुट profile या पता नही कहाँ से खोजा है, और ये बात भी मेरे को ठीक लगती है। क्यूंकि मैंने शुरुवात इसी ख्याल से की थी की कोई अपने आप पढ़े तो ठीक लेकिन मैं किसी को इसके बारे में नही बताऊँगा ... ताकि मैं अपने लिए लिखूं। " Arts for Arts Sake" ।
अगर मैं अपने को अभिव्यक्त करने की आज़ादी चाहता हूँ, तो लोगों के विचार सुनने की आकांशा रुपी मोहपाश से स्वयं को मुक्त करना पड़ेगा।
यह अजीब बात है की मैंने ज्यादा लोगों को अपने ब्लॉग के बारे में नही बताया है, मेरे ख़याल से १-२ को छोड़ के सबने अपने आप ही इसे मेरी ऑरकुट profile या पता नही कहाँ से खोजा है, और ये बात भी मेरे को ठीक लगती है। क्यूंकि मैंने शुरुवात इसी ख्याल से की थी की कोई अपने आप पढ़े तो ठीक लेकिन मैं किसी को इसके बारे में नही बताऊँगा ... ताकि मैं अपने लिए लिखूं। " Arts for Arts Sake" ।
अगर मैं अपने को अभिव्यक्त करने की आज़ादी चाहता हूँ, तो लोगों के विचार सुनने की आकांशा रुपी मोहपाश से स्वयं को मुक्त करना पड़ेगा।
Saturday, January 24, 2009
दीवार के सहारे बैठे हुए,जब
मैं कुछ कहते कहते रुक जाता हूँ,
पूछती है मुझसे,
"क्या सोच रहा है,
कहाँ खो गया है ?"
और आंखों में देखते हुए,मेरे
जवाब का इंतज़ार करती है
तब उन लम्हों में,
चुप हो जाता हूँ,
कुछ बहकता हूँ, मैं कुछ खो जाता हूँ।
और उसे कुछ समझ नही आता॥
चेहरे पे उसके उलझन देख,
" अरे ऐसे ही यार! कुछ नही", मैं हँसता हूँ
वो मुस्कुराती है,
और मैं कुछ और चुप हो जाता हूँ.....
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