Tuesday, April 22, 2008

मास्टर जी


जब मैंने 3 हफ्ते पहले गणित पढाना शुरू किया था, बुआ के घर पर मैंने कहा," मेरे को क्या मतलब बच्चों से? मेरा जब मूड करेगा तब मैं उन्हें छोड़ दूँगा। येही सीखा है मैंने IIFT से।"



आज जब मैं आखरी दफा उनसे मिला, तो मेरा मन दुखा। इन 3 हफ्तो में ये लोग मेरे मित्र बन चुके थे। मैं जब इनके साथ होता तो मुझे मेरे स्कूल के दिन याद आते थे। Sweetness और innocence इनमे अभी तक बची हुई थी। भोलापन बाकी था। मुझ पर आसानी से विश्वास करते थे। मुझे भी इन्हे पढ़ाते हुए लगता कि जैसे इशा या फिर अपने किसी छोटे भाई को पढ़ा रहा हूँ। हम क्लास में मजाक करते थे और समय समय पर मैं उन्हें डांट भी देता था। कभी मैं नाराज़ होता तो वो भी चुप हों जाते थे, कभी उनसे सवाल नही हल होते तो मैं अपनी पूरी कोशिश करता उन्हें समझाने कि। बहुत सारे प्यारे किस्से हुए, उनमे से कुछ ये हें -http://is-was-willbe.blogspot.com/2008/04/8-april-tuesday.html और http://is-was-willbe.blogspot.com/2008/04/18-april-friday.html



मैं जब उन्हें पढ़ा के आता तो मुझे प्रसन्नता होती कि मैंने आज किसी को कुछ दिया है। मुझे अच्छा लगता कि मैं ऐसा काम करता हूँ जिससे कि किसी का बुरा नही होता, सबका भला ही होता है। कहाँ Investment Banking कि अंधी नौकरी जहाँ 95 % किसी न किसी का नुकसान होता ही है, और कहाँ ये job जहाँ रात को सोते वक्त मुझे चैन कि नींद आती है!


कल जब मैं बच्चों को पुरस्कार देने के लिए choclate खरीद रहा था, तो अमन ने पूछा," क्यों senti होते हों उनके लिए? क्या फर्क पड़ता है उनसे? क्यों फालतू में पैसे खर्च करते हों?"

हाँ, कुछ नही लगते थे वो मेरे। लेकिन तब भी जितना IIFT मैं 2 साल मैं मुझे कुल आनंद नही मिला, उससे अधिक अपनापन इन 3 हफ्तो मैं पटेल नगर के बच्चों ने दिया। शुक्रगुजार हूँ मैं आपका!


Sunday, April 13, 2008

वो

दुनिया मैं हैं अनेक सुंदर चेहरे,

ये बात है मुझे अच्छी तरह पता।

ऐसा नही कि वो सबसे अलग,

ये चीज़ भी अच्छी तरह मैं जानता ।

लेकिन दिल्ली की किसी सड़क पर,

जब एक हवा का झोंका,

उसके बालों को बिखरा देता है,

उसके साथ बैठे हुए-

जाने क्यों,

मन में एक टीस उभर आती है ।

जाने क्यों,

साँस एक पल ही सही,थम सी जाती है

मैं आँखें कहीं और मोड़ लेता हूँ,

जाने क्या सोचने लगता हूँ ......

Thursday, April 10, 2008

विज्ञान, कला और आदमी

गणित पढ़ते पढाते सहसा लगा कि आदमी कि उपलब्धि ये नही है कि वो विज्ञान में कितना आगे निकल आया है। ऐसा नही कि मुझे वैज्ञानिकों के आविष्कारों पे आश्चर्य न हो। वो निश्चित रूप से मानवीय आकांषा कि एक सफल प्रतिमूर्ति है, किंतु विज्ञान प्रकृति में विद्यमान सूत्रों कि खोज ही तो है! 2+2=4 हमेशा रहा है। गुरुत्वाकर्षण newton से पहले भी था, और बाद में भी रहेगा। अगर newton न होता, तब भी वो रहता। विज्ञान सत्य कि एक खोज है ...बस इससे आगे कुछ नही।

कला (Art) एक बिल्कुल अलग चीज़ है। वो आदमी कि कृति है। वो आदमी है जिसने इतने सुंदर रंगों से चित्रकला बनी है, जिसने सात सुरों से करोड़ों गाने बनायें हैं, जिसने पत्थर तराश तराश कर अजन्ता - एलोरा बनायें हैं, जिसने भाषा का आविष्कार किया है।असली आविष्कार वही हैं जो मनुष्य ने अपने मनुष्य होने कि वजह से बनायें हैं। कैसे आदमी ने इतने सुंदर शिल्प बनायें हैं! इंसान ने अपने आस पास कि दुनिया को अगर कुछ दिया है तो वो केवल कला के नमूने हैं। केवल वही एक ऐसी चीज़ है, जिसमे हमने प्रकृति में कुछ जोडा है।

बाकी सब ( मशीन, बिजली, विलास-वस्तु) तो वही पानी, मिटटी और आकाश का खेल है जिसे मूर्ख मनुष्य अपनी सरंचना सोच के इतराता है और जिसपे सृष्टि मंद मंद मुस्काती है!

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"बावरे से इस जहाँ में,
बावरा एक साथ हो,
इस सायानी भीड में,
बस हाथों में तेरा हाथ हो,
बावरी सी धुन हो कोई,
बावरा एक राग हो,
बावरे से पैर चाहें,
बावरे तरानो के,
बावरे से बोल पे थिरकना।
बावरा मन देखने चला एक सपना। "
- स्वानंद किरकिरे